Saturday, 8 May 2021

महाराणा प्रताप- पर्वतीय जीवन विशेष


भारत के हिन्दुआ सुरज, प्रातः वंदनीय महाराणा प्रताप सिंह की 481 वी जयंती पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ 🙏🏻


अभी कुछ दिन पहले एक राजनेतिक पार्टी विशेष के नेता द्वारा महाराणा प्रताप पर आपतिजनक बयान दिया गया चलिए आज  महाराणा प्रताप जंयती के अवसर पर उसी विषय पर थोडी जानकारी साझा करते हॆ के महाराणा प्रताप जंगलो मे भटकने की सच्चाई क्या हॆ 👇🏻


हल्दीघाटी से समबन्धित महाराणा प्रताप की गाथाएँ तो बडी महत्वपूर्ण हॆ लेकिन उनसे कही अधिक गॊरवपुर्ण वे गाथाए हॆ जो उनके पर्वतीय जीवन पर प्रकाश डालती हॆ,प्रताप के देशभिमान,स्वार्थत्याग,दुरदर्शिता,ऒर रणकॊशल के अध्ययन के लिए हमे उन घटनाओ को समझना चाहिए जिनका समबन्ध उनकी पहाडी स्थिती से हॆ,

इस स्थिति से सम्बन्धित घटनाए जॆसे महारानियो का चट्टानो पर सोना ,उनके पुत्र अथवा पुत्री की रोटी को बिलाव द्वारा छिना जाना इत्यादी बातो को बढा चढाकर लिखा गया हॆ ,हम जानते हॆ की  प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध ऒर उनके देहावसान के बीच का समय अधिकांश पहाडो पर गुजरा ,यदी हम प्रताप को समझना चाहते हॆ तो हमे उन पहाडो पर जाना होगा जहां वर्षो रहकर प्रताप ने मुगलो का मुकाबला किया ऒर अपने देश की सुव्यवस्था की,ये पहाड आजी भी प्रताप के सच्चे स्वरुप को हमारे सामने उपस्थित करते हॆ ।

हल्दीघाटी की पराजय को महाराणा प्रताप ने कभी पराजय नही माना बल्कि इस पराजय के बाद उन्होने पर्वतीय जीवन ऒर युद्ध नीती का नया पृष्ठ आरम्भ किया। लडाई के मॆदान से वे सीधे उन पहाडो मे गये जहा पानी ,अन्न,ओर ऒषधि उपबल्ध थी। इन पहाडो मे कोल्यारी नाम का गांव था वहा पहुंचकर उन्होने घायल सॆनिको का उपचार करवाया । इन्ही से उन्हे अपने देश की सुरक्षा की आशा थी । यह स्थान निर्जन वन मे था जहां मुगल सेना का पहुंचना कठिन था । यहां प्रताप ने पहले ही रसद एंव अन्य सुविधाओ को जुटाकर रखा था ।कुछ समय यहा रहकर उन्होने घायल सिपाहियो की देखभाल की ऒर उन्हे स्वस्थ बनाया।


इसके पश्चात भीतरी गिरवा के पहाडी नाको पर इन सिपाहियो  को लगाया जिन्होने गोगुन्दा मे टिकी हुई शाही सेना की रसद को बन्द कर दिया । विजयी मुगल एक तरह से यहां कॆदियो की भांति जीवन बिताने लगे ,अपने घोडो ऒर ऊंटो को मारकर  खाने लागे इसके अतिरिक्त वहां पॆदा होने वाला खट्टा आम ही उन मुगलो के जीवन का आधार बना ,विवश होकर मुगल सॆनिक छिप छिप कर भागने लगे ऒर इस प्रकार से मुगलो की विजय पराजय मे बदल गयी ,राजा मान सिंह आमेर एंव बदायुनी जब अजमेर पहुचे तो अकबर ने उनकी अपेक्षा की ऒर यह इस बात का प्रमाण हॆ की प्रताप की पर्वतीय नीती ने मुगलो की नीती को विफल बना गया था।


मुगलो को गोगुन्दा से निकालने से ही महाराणा प्रताप संतुष्ट नही थे ,उन्होने कुम्भलगढ से लगाकर सहाडा  तक तथा गोडवाल से लेकर आंसीद ऒर भॆसरोडगढ के पर्वतीय नाको पर भीलो की विश्वस्त पालो को बसा दिया जो दिन रात मेवाड की चोकसी करते थे ,इन भील जत्थो के साथ अन्य सॆनिक भी थे जो मुगलो को मेवाड मे घुसने से रोकते थे ,

इस सम्पुर्ण व्यवस्था को सफल बनाने के लिए महाराणा को राजप्रासाद के जीवन से तिलांजली देनी पडी ,वे पहाडी कन्दराओ ऒर जंगलो मे अपने परिवार के साथ रहना ही अपने जीवन का अंग बना लिया ,

कभी वे एक पहाडी पर थे तो कभी दुसरी पर ,यह मुगलो से छिपने की विधी न थी वरन एक नयी युद्ध पद्धति थी जिसने भविष्य मे होने वाले मुगल हमलो को विफल बना दिया 

इस पद्धति मे जमकर लडाई करने का कोई महत्व नही दिया जाता। जिसका परिणाम यह हुआ की मुगल जो मॆदानी लडाई मे अभ्यस्त थे वे इस प्रणाली को समझ ना सके, यही कारण था के कुतुबुद्दीनखां , मिर्जाखां, हाशिमखां शाहबाजखां आदि मुगल जो उतरोतर मेवाड की ऒर भेजे गये कभी सफल नही हो सके, यहां तक की अकबर खुद गोगुन्दा आया ऒर राणा प्रताप की तलाश मे लगा रहा परन्तु अपने प्रयत्नो को विफल होकर गुजरात की ऒर निकल गया।


महाराणा प्रताप की सफलता केवल नाकेबन्दी के कारण न थी ,उन्होने अपने पर्वतीय जीवन काल मे स्थानीय  जन समुदाय से अच्छा सम्बन्ध स्थापित कर लिया था ,महाराणा प्रताप के कठिन व्रत एव कष्टपुर्ण जीवन बिताने से लोगो को बडी प्रेरणा मिली ,वे महाराणा के आत्मीय बन गये ऒर हर प्रकार से उनको सहयोग देने लगे । एक तामपत्र के आधार पर यह प्रमाणित होता हॆ के इस पर्वतीय जीवन काल मे महाराणा सकुटुम्ब क ई दिन तक एक लुहार के घर मे रहे थे, उसके सॊजन्य ऒर आतिथ्य के सम्मान मे उन्होने उसे खेती के लिए भुमी भी दी थी ,जो उसके वंशजो के अधिकार मे अब तक थी 


इस पर्वतीय जीवन के काल मे महाराणा ने वे स्थान जो उनके आदेश से खाली कर दिये थे जहां शत्रुओ के द्वारा बडी हानी पंहुची थी या जिन्हे अग्नि का ग्रास बना दिया गया था उन्हे फिर से आबाद किया गया । उदाहरणार्थ पीपली,ढोलान,टीकड,आदि गांव जो उजड गये थे उन्हे फिर से बसाया गया ,लोगो को नयी जमीने दि गयी ,जमीन के नये पट्टे बना दिये गये ,ऒर जो पुराने पट्टे जल गये थे या लुप्त हो गये थे उनको पुन: मान्यता दी गयी 

इस नीती व प्रयत्नो को सफल बनाने के लिए प्रताप पहाडी इलाको मे ही रहते थे ,उदयपुर को राजधानी बनाकर या मोती नगरी के राजप्रासादो मे प्रताप नही रहे ,उन्होने जनता के आराम के लिए अपने आराम की परवाह नही की ,इस व्यवस्था से मेवाड का जनजीवन ,व्यापार,वाणिज्य, आदि साधारण स्थिति पर पहुंच गये ,मुगलो के हमलो की प्रगति भी धीरे धीरे शिथिल होती गयी ।


इस प्रकार जब मेवाड की हालत सुधरती चली गयी तो प्रताप ने सहाडा के जिले मे एक पर्वतीय भाग जिसे छप्पन इलाका कहते थे वहां लुणा चावण्डिया को परास्त कर अपने अधिकार मे लिया ,यह भाग चारो ऒर उंची पर्वतमाला  से घिरा हुआ था  जिसमे घने जंगल तथा पर्वत घाटियो ऒर नाको का बाहुल्य था 

सन 1985ई. मे महाराणा ने इस भाग मे स्थित चावण्ड नामक एक पहाडी कस्बे को अपनी राजधानी बनाया ,उनके जीवन काल तक ही नही वरन उनके सुपुत्र अमर सिंह के राज्यकाल मे 1615ई. तक चावण्ड मेवाड की राजधानी बना रहा ,यहां प्रताप ने अपने महलो का निर्माण करवाया तथा उसके आसपास सामन्तो की हवेलिया बनवाई ,महलो के खण्डर आज भी बताते हॆ कि उनमे विलासिता या वॆभव का कोई दिखावा नही रखा गया था उनकी बनावट मे सरल जीवन तथा सुरक्षा के साधनो को प्रधानता दी गयी थी,जगह जगह मोर्चो की सुविधाए ,की गयी ,

राजप्रासाद तथा हवेलियो के खण्डरो को देखने से प्रतीत होता हॆ की शासक तथा अधिकारी वर्ग के मकानो मे कोई विशेष अन्तर नही था । यदी अन्तर था तो केवल उनके आकार मात्र का ।


महाराणा प्रताप का अन्तिम जीवन भी इसी पर्वतीय भाग मे समाप्त हुआ ,चावण्ड से डेड मील के अन्तराल पर बण्डोली गांव के पास मे महाराणा का दाह संस्कार हुआ जहां एक स्मारक बनवाया गया ,आज यह स्मारक एक बांध के गर्भ मे हॆ बडे प्रयासो के बाद यह स्मारक पानी से उपर उठाया गया जो उस निर्भिक स्वतंत्रता के पुजारी की हमे याद दिलाता हॆ जिसने पर्वतीय जीवन बिताकर तथा कठोरता का हंसकर सामना कर अपने देश के मान ऒर मर्यादा की रक्षा की ।🙏

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साभार - विजय सिंह शेखावत (सिंगोद)


1 comment:

  1. बहुत ही अच्छी इतिहास की जानकारी दी।
    जय महाराणा प्रताप की।

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