Saturday, 23 May 2020

बेटी भी श्रवण सी होती है..।।


एक बेटी श्रवण बनी है बोझ जिंदगी का ढोती है,
क्या विकासशील देश में मजदूरों की हालत यही होती है..।।

रोता मन रोती मेहनत धूप भी सूरज की रोती है,
शिखर दुपहरी में जब एक बेटी श्रवण बन चलती है..।।

धूप में जलता बचपन लेकिन राजनीति कुलर में सोती है,
चित्र देख उमड़ते ख्याल आखिर जिंदगी कितनी कठिन होती है..।।

मिल जाता है सरकार का साथ जिनके पास इसकी कीमत होती है,
ये भारत है मेरी जान यहाँ मजदूरों की किस्मत यूँ ही रोती है..।।

😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊

✍🏻 कुँवर चेतन सिंह चौहान "कलम"

Wednesday, 13 May 2020

निमूचाणा हत्याकांड - इतिहास के पन्नो से


अलवर का नीमूचाना कांड जिसमे 156 राजपूत किसानो को मशीनगन से भून दिया गया और 600 से ऊपर घायल हुए।

जलियांवाला कांड जिसमें लगभग ढाई सौ लोगो की मौत हुई थी उसके बाद भारत के इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार हुआ था नीमूचाना में। महात्मा गांधी ने इसे जलियांवाला हत्याकांड से भी ज्यादा भयानक बताया था। भारत के इतिहास में किसी भी किसान आंदोलन में इतने लोग नही मरे जितने नीमूचाना में एक दिन में मारे गए। इसके बावजूद अगर आप इंटरनेट पर सर्च करेंगे तो इस कांड के बारे में कोई खास जानकारी आपको नही मिल पाएगी। यहां तक कि भारत के किसान आंदोलनों या स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास भी आप पढ़ेंगे तो उसमे मुश्किल ही नीमूचाना कांड का जिक्र आपको मिलेगा।

यहां तक कि राजस्थान के किसान आंदोलनों या तथाकथित रियासत विरोधी/स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में भी इस कांड को पर्याप्त महत्व नही दिया जाता। राजस्थान में इतने कृत्रिम किसान आंदोलनो को 47 के बाद से पब्लिक डिस्कोर्स में  प्रसिद्धि दिलाई हुई है जिनमे जान माल की मामूली हानि हुई थी और उनके स्मारक बने हुए हैं, वर्षगांठ मनाई जाती हैं, इन आंदोलनों के नेता प्रसिद्धि पाकर मंत्री मुख्यमंत्री तक बने लेकिन इन सभी किसान आंदोलनों को मिलाकर भी उतनी जनहानि नहीं हुई जितनी अकेले नीमूचाना हत्याकांड में हुई लेकिन शायद ही इस कांड के शहीदों को याद किया जाता हो।नीमूचाना कांड को महत्व ना दिए जाने के पीछे खुद राजपूत समाज की उदासीनता भी कारण हैं क्योंकि स्थानीय राजपूत समाज मे इतिहास बोध ना के बराबर है।

अलवर रियासत क्योंकि अंग्रेजो के आगमन के कुछ समय पूर्व ही अस्तित्व में आई थी इसलिए वहां राजपूत जागीरदारों की संख्या अभी कम ही थी और जागीर भी बेहद छोटी थीं। 80% भूमि खालसा में थी। इस खालसा में बिसवेदार भी थे। बिसवेदार वो किसान होते थे जो खालसा में आते थे लेकिन उनको अपनी जमीन पर स्थायी मालिकाना हक मिला होता था। उन्हें कर ना चुकाने पर ही बेदखल किया जा सकता था। बिसवेदारो में ज्यादातर राजपूत थे जिन्हें सैनिक सेवा के बदले अलवर दरबार ने बिसवेदारी दीं थी। अंग्रेजो के अधीन होने के बाद राजपूत जागीरदारों और बिसेदारो पर दरबार की निर्भरता खत्म होने से दरबार और आम राजपूतो के संबंध और शिथिल हो गए।

1923-24 के नए भूमि बंदोबस्त में अलवर राज्य ने राजपूत किसानों के बिसवेदारी अधिकार जब्त कर लिये और कर की दरें बढ़ाकर 50% तक कर दी। यह अलवर दरबार द्वारा राजपूतो के साथ धोखा था जबकि रियासत को अब भी राजपूतो को अनिवार्य सैन्य सेवा में बुलाने का अधिकार था। राजपूतो को अनिवार्य सैन्य सेवा के कारण रियायतें दी जाती थीं। उन्हें अपना सामाजिक स्तर भी बनाए रखना होता था। ब्राह्मणो को भी दी जाती थीं हालांकि उन्हें सिर्फ ब्राह्मण होने के कारण रियायत मिलती थी। राज्य को उनसे कोई सेवा नही मिलती थी।

राज्य की इस व्यवस्था के विरुद्ध थानागाजी और बानसूर तहसील के राजपूत बिसवेदारो ने इकट्ठे होकर नई दरों पर कर नही देने और इसके विरुद्ध आंदोलन करने का निर्णय लिया। दबाव बनाने के लिए अक्टूबर 1924 में राजपूतो ने विभिन्न गांवों में बैठके की लेकिन इसका राज्य पर कोई असर नही हुआ।

इसके बाद आंदोलन के नेताओ ने राज्य के बाहर के राजपूतो का समर्थन जुटाने का निर्णय लिया। देशभर के राजपूतो से अपील की गईं। जनवरी 1925 में दिल्ली में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के अधिवेशन में अलवर से 200 राजपूत शामिल हुए। इन्होंने वहां अपनी व्यथा सुनाई और आंदोलन को समर्थन की अपील की। इन्हें अधिवेशन में सहानुभूति मिली और आंदोलन को जारी रखने के लिए प्रोत्साहन मिला।

इसके बाद यह आंदोलन तीव्र हो गया। गवर्नर जनरल के एजेंट को फरियाद की गई। लेकिन राज्य को कोई फर्क नही पड़ा। कर ना देने पर राज ने फसल जब्त कर लीं जिसे राजपूतो ने ताकत के बल छुड़ा लिया। अब राज सरकार द्वारा प्रतिकार की संभावनाओं को देखते हुए राजपूतो ने तलवार, भाले, बंदूक वगैरह जुटाने शुरू कर दिए। जो राजपूत अलवर राज के वफ़ादार थे और उसकी सबसे बड़ी ताकत थे वो ही अब अपने को उपेक्षित महसूस कर रहे थे। राजपूतो ने इस अन्याय का मुकाबला करने का फैसला किया।

आंदोलन का मुख्य केन्द्र नीमूचाना गांव था जिसके ठाकुर इस आंदोलन के मुख्य संगठन कर्ता थे। मई 1925 की शुरुआत में राजपूत बड़ी संख्या में इस गांव में जुटने शुरू हो गए। सरकार ने थानागाजी, बानसूर, मालाखेड़ा, राजगढ़, बहरोड़ थाना क्षेत्रो में हथियार लेकर घूमने पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकार ने 7 मई को नीमूचाना गांव में वार्ता के लिए एक कमिशन भेजा जिसका असली उद्देश्य खुफिया जानकारी इकट्ठा करना था। इस कमिशन की वार्ता से कुछ हासिल नही हुआ और 6 दिन बाद 13 मई को राज्य की सेना ने गांव को चारों तरफ से घेर लिया और आंदोलन खत्म करने को कहा। 14 मई की सुबह सेना ने सारे रास्ते बंद कर बिना चेतावनी के गांव पर मशीन गन से फायरिंग शुरू कर दी और गांव को जलाकर राख कर दिया जिसमे 156 राजपूत किसान मारे गए और 600 से ज्यादा घायल हुए।

इस हत्याकांड की देशभर में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। देशभर के समाचार पत्रों में लेख लिखे गए। महात्मा गांधी ने इसे जलियावांला से भी ज्यादा भयानक बताया। लेकिन क्योंकि अंग्रेजी राज के परिणामस्वरूप बने नए शहरी उच्च मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस के द्वारा राजपूतो को अस्पृश्य समझा जाता था इसलिए इस हत्याकांड की आलोचना की सिर्फ औपचारिकता निभाई गई। हालांकि सरकार ने हत्याकांड के बाद अपने फैसले वापिस लिए और मृतकों के परिजनों को मुआवजे दिए गए।

यह कहा जाता है कि अलवर महाराज पर अंग्रेज सरकार का दबाव था। अंग्रेज सरकार उन्हें हटाने के बहाने ढूंढती रहती थी। और असहयोग आंदोलन के बाद अंग्रेजी सरकार ने आंदोलनों से सख्ती से निपटने का फैसला किया हुआ था। लेकिन इस सबके बावजूद इतने बड़े हत्याकांड के लिए किसी भी बहाने से किसी को दोषमुक्त नही किया जा सकता।
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लेखक- पुस्पेंद्र राणा
साभार - वीरेंद्र प्रताप सिंह सोलंकी

Saturday, 18 April 2020

विश्वगुरु बनता मेरा हिंदुस्तान



कहते है कि समयचक्र खुद को दोहराता है और आज वही वक्त है जब मेरे देश का स्वर्णिम युग पुनः अपने तेज से प्रकाशित होने लगा है। एकतरफ जहां पूरी दुनिया कोरोना नामक संक्रमण से त्राहिमाम त्राहिमाम कर रही है वही दूसरी तरफ भारत के प्रयासों से बीमारी ने अबतक देश मे अपना विकराल रूप नही दिखाया है।

कहते है एक सर्वोत्तम नेतृत्व ही अपने देश को उन ऊंचाइयों पर ले जाता है जहां से पूरा विश्व नतमस्तक होकर उसे प्रणाम करने लगता है। आजसे पहले भी कई बार ऐसा हुआ है जब विदेशी शक्तियों ने हिंदुस्तान के आगे झुककर उसे नतमस्तक होकर प्रणाम किया है व हिंदुस्तान का साथ मांगा है। लेकिन आज समय अलग है स्तिथियाँ अलग है। जब मेडिकल क्षेत्र में महारथ हासिल कर चुके देश कोरोना के आगे घुटने टेकने पर मजबूर हो गए तब एकमात्र देश भारत ने अब तक कोरोना को घुटनों पर लाकर टिका दिया।
देश की सरकार, पुलिस, फौज, स्वस्थ्यकर्मी, सफाईकर्मी व अन्य कोरोना योद्धाओं ने जिस प्रकार अपने पूर्ण समपर्ण से देश का साथ दिया उसी का आज ये परिणाम है कि स्विट्जरलैंड जैसे देश ने अपने मैटरहॉर्न पर्वत को हिंदुस्तान के रंग में रंग दिया।

ये प्रमाण है कि मेरा देश आज फिरसे विश्वगुरु बनने को तैयार है और आने वाले समय में हिंदुस्तान पुनः विश्वशक्ति के रूप में अपने आपको स्थापित करेगा।

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जयहिंद
जय भारत

✍🏻 *कुँवर चेतन सिंह चौहान*

Thursday, 2 April 2020

लॉक डाउन - निर्णायक युद्ध




जैसा कि आप सबको पता है 22 मार्च को जनता कर्फ्यू के बाद 26  मार्च से सम्पूर्ण देश मे लॉक डाउन को लागू कर दिया था। कुछ लोगो को सरकार का ये फैसला सही लगा तो कुछ लोगो को गलत लेकिन असल मे लॉक डाउन की क्या आवश्यकता रही होगी जो मेरी सोच के अनुसार ये है-

लॉक डाउन का कारण- चीन के वुहान से निकले एक कोरोना वायरस (Covid-19) ने जब धीरे धीरे विश्व के महानतम देश जो विकसित है, जिनके पास सबसे बेहतरीन चिकित्साप्रणाली है उन्हें तेजी से अपनी चपेट में लेना शुरू किया और मौत का भयानक खेल शुरू हुआ तो भारत के पास इस वैश्विक समस्या से निपटने का एकमात्र रास्ता लॉक डाउन ही बचा था। बेशक भारतीय मेडिकल व्यवस्था भी कमजोर नही है लेकिन इतनी भी उन्नत नही की ऐसी परिस्तिथियो का मुकाबला सिर्फ मेडिकल इक्वेपमेंट्स के आधार पर कर सके इसलिए लॉकडाउन जैसी व्यवस्था को मजबूरन लागू करना ही एकमात्र उपाय रहा भारतीय सरकार के पास।

लॉकडाउन में कमी - बेशक लॉक डाउन ही एकमात्र उपाय था  भारतीय सरकार के पास लेकिन लॉकडाउन की घोषणा के समय गरीब और खासतौर से दिहाड़ी मजदूरों की तकलीफों पर खासा ध्यान न देने से भीड़ का अपने अपने गांवों की तरफ प्रस्थान करना लॉक डाउन की सबसे बड़ी कमी रही। यदि इस वर्ग को विश्वास में लेने का कार्य उचित समय पर और अधिक सजगता से होता तो दिल्ली जैसी हालात किसी भी जगह पर नही होते। लॉकडाउन के समय इन बारीकियों की ओर ध्यान न देना कुछ हद तक कमियां दर्शाता है।

लॉकडाउन का प्रभाव - जिसप्रकार सरकार ने लॉक डाउन की घोषणा की और सम्पूर्ण देश ने एकजुट होकर इसका समर्थन व पालन किया और वर्तमान में कर रही है उसका सीधा सीधा प्रभाव के रहा है कि कोरोना जैसी महामारी जिसने कुछ ही दिनों में अमेरिका जैसी व्यवस्थित व विकसित प्रणाली को घुटनों के बल पर ला दिया वो बीमारी भारत मे अपने उस विस्फोटक स्वरूप में अभी तक नही आ पाई है जिसका खौफ ना केवल भारतीय सरकार अपितु पूरे विश्व को था। ये वायरस अभी तक मुख्यत शहरों में ही सीमित है जिसका एकमात्र कारण सरकार द्वारा सही समय पर लॉक डाउन का फैसला लेना रहा क्योंकि अगर ये बीमारी एकबार गांवों में अपनी जड़ें जमाना शुरू कर देगी तो इसको सम्भालना व इससे बचना बहुत कठिन होगा। इस बीमारी के फैलने से जो स्तिथि उत्पन्न होगी वो बहुत भयावह होगी जिससे देश ना केवल आर्थिक रूप से अपितु मानसिक रुप से भी कई साल पिछड़ जाएगा।

अतः समस्त देशवासियों को आज मिलकर ये शपथ लेनी चाहिए कि जब तक ये विपदा पूर्णतः समाप्त नही हो जाती हमे सरकार के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना होगा व सरकार के हर कदम का समर्थन करना होगा। सच्ची देशभक्ति दिखाना सिर्फ बॉर्डर पर जाना नही होता यदि इस विपत्ति काल में आप किसी भी प्रकार से देश की रक्षा करने में आप अपना योगदान दे रहे है तो निश्चित ही आप भी सच्चे देशभक्त है।

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जयहिंद जय भारत
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयः
घर रहिए - सुरक्षित रहिए

✍🏻 कुँवर चेतन सिंह चौहान