Sunday, 30 September 2018

ऐसा वीर जिसने सेना में आगे रहने को अपना सिर काटकर फेंका था किले में



राजस्थान का इतिहास यहां के राजपूतों के हजारों वीरता की सच्ची गाथाओं के लिए भी जाना जाता है। उन्हीं गाथाओं मे से एक है जैत सिंह चुण्डावत की कहानी। मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह की सेना की दो राजपूत रेजिमेंट चुण्डावत और शक्तावत में अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए एक प्रतियोगिता हुई थी। इस प्रतियोगिता को राजपूतों की अपनी आन, बान और शान के लिए अपने प्राण तक न्यौछावर कर देने वाली कहावत का एक अच्छा उदाहरण माना जाता है।
मेवाड़ के महाराणा अमर सिंह की सेना में विशेष पराक्रमी होने के कारण चुण्डावत खांप के वीरों को ही युद्ध भूमि में अग्रिम पंक्ति में रहने का गौरव मिला हुआ था। वह उसे अपना अधिकार मानते थे। किन्तु शक्तावत खांप के वीर राजपूत भी कम पराक्रमी नहीं थे। उनकी भी इच्छा थी की युद्ध क्षेत्र में सेना में आगे रहकर मृत्यु से पहला मुकाबला उनका होना चाहिए। उन्होंने मांग रखी कि हम चुंडावतों से त्याग, बलिदान व शौर्य में किसी भी प्रकार कम नहीं है। युद्ध भूमि में आगे रहने का अधिकार हमें मिलना चाहिए। इसके लिए एक प्रतियोगिता रखी गई जिसे जीतने के लिए चुण्डावत ने अपना सिर खुद धड़ से अलग कर किले में फेंक दिया था।

सभी जानते थे कि युद्ध भूमि में सबसे आगे रहना यानी मौत को सबसे पहले गले लगाना। मौत की इस तरह पहले गले लगाने की चाहत को देख महाराणा धर्म-संकट में पड़ गए। किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर युद्ध भूमि में आगे रहने का अधिकार दिया जाए?

इसका निर्णय करने के लिए उन्होंने एक कसौटी तय की, जिसके अनुसार यह निश्चित किया गया कि दोनों दल उन्टाला दुर्ग (किला जो कि बादशाह जहांगीर के अधीन था और फतेहपुर का नवाब समस खां वहां का किलेदार था) पर अलग-अलग दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे व जिस दल का व्यक्ति पहले दुर्ग में प्रवेश करेगा उसे ही युद्ध भूमि में रहने का अधिकार दिया जाएगा।
प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए दोनों दलों के रण-बांकुरों ने उन्टाला दुर्ग (किले) पर आक्रमण कर दिया। शक्तावत वीर दुर्ग के फाटक के पास पहुंच कर उसे तोड़ने का प्रयास करने लगे तो चुंडावत वीरों ने पास ही दुर्ग की दीवार पर रस्से डालकर चढ़ने का प्रयास शुरू कर दिया। इधर शक्तावतों ने जब दुर्ग के फाटक को तोड़ने के लिए फाटक पर हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढाया तो फाटक में लगे हुए लोहे के नुकीले शूलों से सहम कर हाथी पीछे हट गया।
हाथी को पीछे हटते देख शक्तावतों का सरदार बल्लू शक्तावत, अद्भुत बलिदान का उदहारण देते हुए फाटक के शूलों पर सीना अड़ाकर खड़ा हो गया व महावत को हाथी से अपने शरीर पर टक्कर दिलाने को कहा जिससे कि हाथी शूलों के भय से पीछे न हटे।

एक बार तो महावत सहम गया, किन्तु फिर वीर बल्लू के मृत्यु से भी भयानक क्रोधपूर्ण आदेश की पालन करते हुए उसने हाथी से टक्कर मारी जिसके बाद फाटक में लगे हुए शूल वीर बल्लू शक्तावत के सीने में घुस गए और वह वीर-गति को प्राप्त हो गया। उसके साथ ही दुर्ग का फाटक भी टूट गया।

शक्तावत के दल ने दुर्ग का फाटक तोड़ दिया। दूसरी ओर चूण्डावतों के सरदार जैत सिंह चुण्डावत ने जब यह देखा कि फाटक टूटने ही वाला है तो उसने पहले दुर्ग में पहुंचने की शर्त जीतने के उद्देश्य से अपने साथी को कहा कि मेरा सिर काटकर दुर्ग की दीवार के ऊपर से दुर्ग के अन्दर फेंक दो। साथी जब ऐसा करने में सहम गया तो उसने स्वयं अपना मस्तक काटकर दुर्ग में फेंक दिया।
फाटक तोड़कर जैसे ही शक्तावत वीरों के दल ने दुर्ग में प्रवेश किया, उससे पहले ही चुण्डावत सरदार का कटा मस्तक दुर्ग के अन्दर मौजूद था। इस प्रकार चूणडावतों ने अपना आगे रहने का अधिकार अद्भुत बलिदान देकर कायम रखा।
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जय क्षात्र धर्म
जय भवानी
      🚩🚩🚩केसरिया क्रांतिकारी🚩🚩🚩
साभार :- गुमान सिंह चूंडावत पारडी

गुजरा जमाना - बदलाव की हकीकत


*गुजरा जमाना - बदलाव की हकीकत*


चलो आज एक हकीकत सुनाई जाए,
कुछ बीते जमाने की बाते बताई जाये,
कुछ असलियत इस बदलते वक्त की तुम्हे दिखाई जाए,
कुछ बातें पुरानी आज तुम्हे याद दिलाई जाए,

एक ऐसा गुजरा जमाना था,
जब सब यारो के बैठने का एक ठिकाना था,
रोज एक ही थाली में भाइयों का खाना था,
खाना क्या था साथ बैठकर बतलाने का एक बहाना था,

गांव के बीचों बीच एक चौपाल थी,
जहां से बनती राजीनीति की  सारी चाल थी,
रोज शाम को चिलम तम्बाकू का आभास था,
वही तो गांव में बुजुर्गों के होने का अहसास था,

रोज गौधुली वेला में गांव के युवा होते एक थे,
कुछ होती थी हंसी ठिठोली कुछ बनते कार्यक्रम नेक थे,
सभी युवाओं का बस एक सपना था,
की ये गांव नही एक पूरा परिवार अपना था,

लिखने को तो ना जाने और क्या क्या बातें लिख दूँ,
वो खेतों में कुएं पर नहाना ओर खेत में सोते हुए वो चांदनी राते लिख दूँ,
वो आसपड़ोस की भाभी का प्यार या घर के बुजुर्गों से पड़ती मार लिख दूँ,
या पड़ोसियों का अपनापन सगे सम्बन्धी जैसा व्यवहार लिख दूँ,

लिखने को बहुत कुछ है यार पर पढ़ने का वक्त कहाँ है,
स्वाभिमान पर उबाल खाता था जो वो अब रक्त कहाँ है,
वक्त की मार ने सोच बदली बदल दिए रहने के तरीके,
अब अपना घर आबाद रहे भाई चाहे बर्बाद रहे यही है जीने के सलीके...।।।।।।

😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊

*कुँवर चेतन सिंह चौहान (Chiksa)*

Saturday, 15 September 2018

एक राजपूत जिसे पूजता है मुस्लिम समाज - दौलत शाह मजार (दौलत सिंह शेखावत महरोली)

 


जोगीराम सिंह जी व दौलत सिंह जी दो भाई थे जो कि मूलतः ग्राम महरोली में जोध सिंह जी की कोटड़ी (छोटा पाना) में आते थे जोगीराम सिंह जी जयपुर दरबार के नोकरी करते थे और दौलत सिंह जी गांव में ही रहते थे उनके बड़े भाई जब भी जयपुर दरबार के यहां से छुट्टी पर गांव आते थे तो दौलत सिंह जी को डांट ते थे कि गांव में क्या करता है चल में जयपुर दरबार के यहां नोकरी लगा देता हूं फिर कुछ समय बाद वो भी जयपुर दरबार के यहां नोकरी लग जाते है पर उनके बड़े भाई जोगीराम जी जगदीश जी भगवान जिनका मंदिर अजीतगढ़ के पास स्थित है जगह मुझे ज्ञात नही पर जगदीश जी महाराज के जोगीराम जी परम् भक्त थे वो उस भक्ति में लीन हो गए उनकी पूजा पाठ करने लगे  फिर उधर दौलत सिंह जी जो को जयपुर दरबार के यहां नोकरी करने लग गए थे तो उस समय जयपुर रियासत मीणो से खूब युद्ध करा करती थी तो ऐसा ही एक युद्ध मीणो से चोमू के पास हुआ उस युद्ध  में दौलत सिंह जी ने एक वीर योद्धा की तरह युद्ध लड़ा उनका सर धड़ से अलग होने के बावजूद वो लगातार लड़े और आखिर कर उनका शरीर चोमू में उस जगह गिरा जहां आज उनकी मजार बनी हुई है । मजार बनने के मामले में कई मतभेद है कोई कह रहा है कि उनकी शमाधि की सेवा एक मुसलमान ने की इस वजह से धीरे धीरे नाम दौलत साह हो गया और कोई कह रहा है कि आखिरी सांस के समय उन्होंने मुसलमान से मदद मांगी तो मुस्लिम ने मदद की उनकी मजार बना दी । अब दौलत सिंह जी वीर गति को प्राप्त हो गए तो जयपुर राजघराने उस योद्धा को कोई मान नही दिया उनके परिवार तक कि सूद भी नही ली तो उनके परिवार वालो ने उनके बड़े भाई जोगीराम जी को खूब कोसा की तू ही उनको लेके गया वहाँ और खुद छोड़ के आगया   अब जोगीराम जी जगदीश जी महाराज के परम भक्त थे शक्तियां उनमे विराजमान थी उनको राजघराने पे गुस्सा आया और रातो रात अकेले ही चांदपोल का गेट उतार के जगदीश जी के मंदिर में लगा दिया ये कारनामा करने के बाद वो वापस भक्ति में लीन हो गए फिर जब जयपुर दरबार को ये बात पता लगी तो उन्होंने 50 योद्धाओ की एक टुकड़ी भेजी उनको लाने के लिए और उस टुकड़ी में जो योद्धा गए वो भी डरे हुए थे कि जो चांदपोल का गेट उतार सकता है वो कुछ भी कर सकता है तो उस टुकड़ी की सेना ने उनपे हमला उस समय किया जब वो भक्ति में लीन थे और उनकी गर्दन काट के जयपुर दरबार के सामने जब पेश की तो ज्यो ही कपड़ा उस गर्दन से हटाया तो चेहरा घूम गया ये देख के जयपुर दरबार अचंभित हुए और बोले किस वीर योद्धा की गर्दन लेके आगये तो जब दरबार को हकीकत मालूम पड़ी की ये भक्ति में लीन थे धोखे से इन्होंने इनकी गर्दन काट दी तो जयपुर दरबार काफी नाराज हुए और उन्होंने उस टुकड़ी में शामिल 50 के 50 यौद्धा को शूली पे लटका दिया। आज इस मजार पर ना केवल मुस्लिम अपितु हिन्दू भी माथा टेकने व अरदास माँगने जाते है।
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Source - कुँवर अजय सिंह शेखावत महरौली

जय क्षात्र धर्म
जय माँ भवानी

                       *केसरिया क्रांतिकारी*

Monday, 10 September 2018

श्री झुंझार जी महाराज - एक गौ रक्षक


सीकर के समीप मोरडूंगा ग्राम के बीचों बीच एक गौरक्षा के लिए शहीद होने वाले वीर का देवालय बना हुआ है। जहाँ भादवा सुदि द्वादशी को मेला लगता है। सैंकड़ों वर्षों से लगते आ रहे इस मेले व देवरे (देवालय) के पीछे इतिहास की एक कहानी छिपी है। इस कहानी में एक उद्भट वीर की शौर्यगाथा का इतिहास है। इस शौर्यगाथा के नायक ने गौरक्षा के लिए कुख्यात लुटेरों का मुकाबला करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया था। आज उसी नायक को स्थानीय लोग लोक देवता के रूप में पूजते है और उसकी याद में बने देवालय पर हर वर्ष मेला भरता है।

यह देवालय है रतनसिंह बालापोता का (बालापोता कछवाह कुल की एक खांप है)। जयपुर जिले के बलखेण ग्राम में जन्में इस वीर को विपदा जन्म से ही विरासत में मिली थी। बाल्यकाल में माता-पिता दोनों ही नहीं रहे। सेवदड़ा ग्रामवासी इनकी मौसी ने इनका लालन-पालन किया। इनकी एक भुआ लाड़ोली के मेड़तिया राठौड़ों में ब्याही थी। उसके चतरसिंह नाम का एक पुत्र था। चतरसिंह, रतनसिंह का अभिन्न सहयोगी था। जब रतनसिंह युवा हुए तो इनकी सगाई रायांगणां के मांगलिया क्षत्रियों के यहाँ की गई। विवाह की तिथि भी निश्चित कर दी गई। भुआ के बेटे चतरसिंह को विवाह में आमंत्रित करने के लिए निमन्त्रण भेजा गया और चतरसिंह निमंत्रण पाकर सेवदड़ा गांव आ गए।

रतनसिंह कुशल घुड़सवार थे। उनके मांसोसा (मौसाजी) ने रतनसिंह को कन्हैया नामक अच्छी नस्ल का एक घोड़ा प्रसन्नतापूर्वक भेंट किया था। सेवदड़ा के ठाकुरों और धाड़ेतियों (डाकुओं) के आपस में बैर था। उन्होंने मौका देखा कि सेवदड़ा के ठाकुर रतनसिंह की शादी की तैयारियों में व्यस्त है, सो अवसर का फायदा उठाकर क्यों ना सेवदड़ा गांव का पशुधन घेरा जाय। धाडे़ती चुपचाप आये और गांव के खेतों में चर रही गायों को घेर कर लिया। ग्वालों ने कोटड़ी (ठाकुर का आवास) पर आकर अपना पशुधन डाकुओं से बचाने की फरियाद की। हाथों में कंकण बंधे हुए, पीठी की हुई, बान बैठे हुए (शादी की रस्में) रतनसिंह ने ग्वालों की गुहार सुनी। अपने घोड़े की ओर देखा, घोड़ा हिनहिनाया। गौरक्षा  हेतु पर्यन करने के लिए रतनसिंह ने चरवादार को घोड़े पर पाखर (जीन) कसने का आदेश दिया।

रतनसिंह और चतरसिंह दोनों हाथों में भाले थामें, पीठ पर ढाल बांधे, कमर पर तलवार बाँध, अपने घोड़ों पर सवार हो, धाड़ेतियों के पीछे दौड़े। रतनसिंह ने धाड़ेतियों के समीप पहुंचकर उन्हें ललकारा- कायरों की भांति गायें घेरकर (लूटकर) कैसे ले जा रहे हो। क्या इस धरती का कोई धणी-धोरी नहीं है। आमना-सामना हुआ। खूब खड्ग चले। धाडे़ती मुकाबले में ठहर नहीं सके। एक भाई ने पशुधन को संभाला। दूसरे ने धाड़ेतियों के खिलाफ मोर्चा संभाला और पशुधन को लेकर गांव आने लगे। रतनसिंह, चतरसिंह दोनों पशुधन लेकर जब गांव की ओर आने लगे, तब रास्ते में एक बूढी औरत मिली। बुढ़िया ने कहा कि इनमें मेरा केरड़ा (गाय का बच्चा) तो आया ही नहीं। तब रतनसिंह, चतरसिंह दोनों वापस गए। सरवड़ी और पूरणपुरा गांव के बीच फिर दोनों पक्षों के मध्य मुकाबला हुआ। इस मुकाबले में लाड़ोली के मेड़तिया चतरसिंह काम आये। रतनसिंह पास के गांव मावा तक धाड़ेतियों से लड़ते रहे। तभी एक धाड़वी के खड़्ग वार से रतनसिंह का मस्तक कटकर धरती पर गिर गया (जहाँ आज भी उनके स्मारक स्वरूप एक देवरी बनी है)। सिर कटने के बाद भी रतनसिंह की धड़ पशुओं को घेरकर गांव की ओर ला रही थी। मोरडूंगा गांव के पास सरवड़ी व पूरणपुरा गांव के कांकड़ के पास आते-जाते बालकों की दृष्टि मस्तक विहीन घुड़सवार पर पड़ी। बालकों ने उच्च स्वर से कहा- बिना मस्तक का शुरमां। इतना कहना था कि कमध (धड़) घोड़े से नीचे गिर पड़ा। घोड़ा वही खड़ा रहा, उसकी आँखों से अश्रुधारा बहने लगी।

इस गौरक्षक वीर के शव के साथ उसकी मंगेतर कुंवारी ही हो गई थी सती

गौरक्षा के लिए रतनसिंह बालापोता  द्वारा प्राणों के उत्सर्ग का समाचार रायांगणां के मांगलिया क्षत्रिय परिवार, जहाँ उसकी सगाई हुई थी, पहुंचा। तब उसकी मंगेतर मांगलियाणी कन्या रथ जुतवा कर मोरडूंगा गांव पहुंची और अपने मृत मंगेतर के शव के साथ चिता का आरोहण कर सती हो गई।  सरवड़ी व पूरणपुरा गांव के कांकड़ पर उस सती का स्मारक स्वरूप मंदिर बना है। यह मंदिर आज भी अपनी मूकवाणी से क्षत्रिय कन्याओं को सतीत्व व पवित्रता की याद दिलाता है। पास में ही एक गांव लालासरी, जिसके बीचों बीच एक देवरी बनी है, जिसमें लिखा है- ‘‘वि.सं. 1908, बालापोता बलखेण के झुझार जी महाराज रतनसिंह।’’

इस घटना को घटित हुए आज सैंकड़ों वर्ष बीत गये। मोरडूंगा में इन्हीं झुझारजी महाराज का भादवा सुदि द्वादशी को मेला भरता है। ग्यारस की रात को जागरण होता है। मेले में आस-पास के ग्रामीणों के अलावा दूसरे प्रदेशों से श्रद्धालु पहुंचकर अपने आपको धन्य समझते है। राजपूत समाज के साथ ही सभी जातियों के लोग झुझारजी महाराज रतनसिंहजी को लोक देवता के रूप में पूजते है, जात जडुले चढ़ाते है, दहेड़ी चढ़ाते है, वर-वधु गठजोड़े के साथ जात देने आते है। जनमानस को इस पवित्र स्थान के चमत्कारों पर इतना विश्वास है कि वहां मनौतियाँ मांगी जाती है। विश्वास करने वाले बताते है कि यहाँ असाध्य रोगों के रोगी ठीक होकर गए है।

मंदिर में शराबी व्यक्ति का प्रवेश वर्जित है। मोरडूंगा के अलावा रतनसिंह के गांव बलखेण में भी झुझारजी का स्थान बना है। झुझार रतनसिंहजी का चरित्र आज भी हमें अपने कर्तव्यपथ पर चलने की प्रेरणा देता है और भविष्य में आने वाली पीढ़ियों को देता रहेगा। कहा जाता है कि मंदिर से आज भी कर्तव्य परायण व्यक्तियों को एक ध्वनी सुनाई देती है, कि जो व्यक्ति अपने धर्म के लिए जीवन देता है, उसी की स्मृति में मेले लगते है। झुझारजी महाराज रतनसिंहजी के चमत्कारों से प्रभावित होकर आस-पास के गांव सेवदड़ा, लालासरी, पूरणपुरा, सरवड़ी, मावा सहित कई जगह उनके देवरे बने हुए है।


इस गौरक्षक वीर के शव के साथ उसकी मंगेतर कुंवारी ही सती हो गई थी।

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*केसरिया क्रांतिकारी*