Tuesday, 27 February 2024

वर्तमान के अभिमन्यु

 













जिस प्रकार महाभारत में उतराधिकार का संघर्ष हुआ और एक बड़ा युद्ध हुआ ठीक उसी प्रकार एक युद्ध आज हर रोज लड़ा जाता है| नौजवान युवा अपनी जवानी को इस युद्ध में झोंक देते है कुछ सफल हो जाते है कुछ असफलता के भंवर में डूब जाते है| यह युद्ध है आज सरकारी नौकरी लेने का, क्यूंकि वर्तमान समय में आप कामयाब तभी है जब आपके पास सरकारी नौकरी है| सरकारी नौकरी को आज आपके ज्ञान और कामयाबी का पैमाना बना दिया गया है|

इस युद्ध में ना जाने कितने अर्जुन है, कितने अभिमन्यु है और ना जाने कितने कर्ण है| जगह जगह कोचिंग गुरु द्रोणाचार्य बनी हुयी है और एक से एक अर्जुन तैयार करने में लगी है| जिसके पास पैसे नही वो एकलव्य बने हुए है| लेकिन इन सबमे सबसे खास है अभिमन्यु|

अभिमन्यु वो युवा है जो घर के दबाव में, पड़ोसियों के ताने और दोस्तों की कामयाबी को देखते हुए इस युद्ध में उतर तो चूका है लेकिन उसे ये ज्ञात नही की ये पूरा युद्ध ही उसके लिए एक चक्रव्यूह है और इस चक्रव्यूह में उसे सिर्फ आने का रास्ता पता है जाने का नही|

जैसा की महाभारत काल में हुआ था ठीक वैसा ही यहाँ भी होता है रोज ना जाने कितने अभिमन्यु इस चक्रव्यूह में फंसते है और वीरगति को प्राप्त होते है, चक्रव्यूह में आज के अभिमन्यु को घेरे हुए है कोरवो के रूप में घरवालो के ताने, असफलता की निराशा, मां पिता के सपनों का बोझ, पड़ोसियों की कुटिल मुस्कान और मानसिक तनाव| ये सभी मिलकर ना जाने कितने अभिमन्यु को प्रतिदिन मारती है इस चक्रव्यूह में|

ना जाने कब अभिमन्यु की मां निंद्रा को तोड़ेगी और अभिमन्यु इस चक्रव्यूह को तोड़ने की कला सीखेगा| ना जाने कितने अभिमन्यु अभी और इस चक्रव्यूह में फंसके अपने प्राण त्यागेंगे|

ना जाने कब वर्तमान के अभिमन्यु इस चक्रव्यूह को तोड़कर बहार निकलेंगे और विजयश्री प्राप्त करेंगे|

लेखनी – कुंवर चेतन सिंह चौहान


Monday, 17 April 2023

ठाकुर का कुँआ

 


ठाकुर गोरधन सिंह रहते थे सिन्ध के खिपरो में।

नौ बेटे चार बेटियाँ।

जब लगा कि हवा का रुख पलट गया है,

अकेला पड़ता जा रहा है,

आ पहुंचे सिंध से हिन्द!

सैकड़ों गाय, ऊंट भेड़ बकरी!

तलाई सूखी। कब तक दूसरों के भरोसे रहना?


विचार किया कुँआ खोदने का।

जाळ वाली डेहरी में,

चौथ का धूंप किया।

आखा जोया, सुगन बिचारा।

और जेठ की ग्यारस को खुदाई शुरू की।

दो बेटे खोदते, दो मिट्टी खींचते।

अभी आठ पुरुस ही खोदा था कि कुँआ ढह गया!!

हीरा वीरा दब गए।

खेजड़ जैसे पाले पोसे, दो कुंवर जिंदा दफन हो गए।

लाशें निकाली। दाह संस्कार किया।

बारह दिन बिताकर फिर से खुदाई शुरू की।

इस बार चिमिया मेघवाल बुलाया।


एक ऊंट से मिट्टी, दूजे से पखाल, तीजे से बहावलपुर की पक्की ईंटों की ढुलाई शुरू की।

चिमिया चिनाई करता।

जागन चूना घोलता।

तेजा और भूरा कींण भरते।

सतिया और बूलाह खींचते।

इक्कीस पुरुस पर गींया आया।

बयालीस पुरुस पर खुदाई चल रही थी,

अचानक कींण टूटी।

भूरे की कमर ही टूट गई।

मांचे पर डालकर घर लाए।

इग्यारह महीने खुदाई चली।


साठ पुरुस पर पानी आया।

भगवती को भोग लगाया।

पितरों का तर्पण किया।

हीरा और बीरा की आत्मा का तर्पण किया।

चिमिया ने कोठा चुगा।

काठोडी से सिम्पट, खेली, कपूरिया और कोअड़ मंगवाए।


नख्तू सुथार ने ओड़ाक, खीली और भाण बनाया।

तेजा भील ने बरत और कोस दिया।

किसी को ऊँट तो किसी को बळदों की जोड़ी दी।

किसी के कान पीले किये तो किसी की कन्या परणाई।

किसी ने गोखरू घड़ाए तो किसी की सगाई कराई।

पर चिमिया राजी नहीं हुआ।

ठाकुर ने कहा "बोल चिम्मा! क्या चाहता है?"

फोगां वाली डेहरी, पूरे तीन सौ बीघा का खेत लिया।

ठकुराइन बोली "मेरा चिम्मा नाराज नहीं रहना चाहिए, खेत के साथ बैल भी दो!"

और शुद्धनम को कुँआ चालू हुआ।

पहले एक डेरा था, अब बस्ती बस गई।

देश देश के नासेटू आते। पखाल, पनघट, सब चालू रहता।


दिन को धणियों वाला धन पीता।

रात को निधणीके फंडे ढोर पीते।

जंगली जानवर और हिरणियों की प्यास बुझती।

आठ कोस तक के रोल खोल, थके, लंगे, पशु पक्षी, सबकी आशा का सहारा।

गौधूजी का कुँआ।।


मंगनियार हीरा वीरा के झोरावे गाते।

चारपाई पर पड़े हुए भूरे की आंखें गीली हो जातीं।

ठाकुर आंखों से अंधा भी "आये गए" की सार सम्भाल करता।

डेहरी में कोस की धमक गूँजती।

खीली के लिए गोसी की हुंकार होती।

घिरनी की चपड़ चूँ चार कोस तक सुनाई देती।

ऊँटों के बग घमकते, खिज का हुब्बाड़ उठता।

तपेलों में खीर महकती, चिलम के धुंए उठते, खेजड़ी के नीचे चहल-पहल।

दूर दूर के यात्री, अपनी अपनी कथाएं कहते।

दिन तोड़ते, हिसाब करते, पंचायतियां होती।

कतारें रुकती।

दिसावर जाते पंथी और ससुराल जाती बहुएं यहाँ से अपने हलकारे को अंतिम सन्देश के साथ वापस रवाना करतीं।


लोकगीतों में, मिथक में, भयानक यात्राओं में, हिस्ट्री में, मिस्ट्री में, संकेत में, सेना में, चारों तरफ चर्चा में रहा!


ठाकुर वाला कुँआ।

गोधूवाला कुँआ!!

Wednesday, 29 March 2023

रेबारी तुम कब आओगे

 


गर्मियां आ गई लेकिन ढूंढाड़ में रेबारी कब आएंगे ? 

रामजी और रेबारी ढूंढाड से ऐसे रूठ गए कि अब ढूंढाड़ की पूरी रंगत ही बदलती जाती है. बिना पावणो के कैसी तो रंगत और कैसा ढूंढाड.

मेरे गांव के बाहर जंगल में एक चबूतरा बना हुआ है. कोई मारवाड़ का रेबारी सौ बरस पहले ऊंट लेकर ढूंढाड आया था. बीमारी से वह रेबारी स्वर्ग सिधार गया. जिस जगह रेबारी ने प्राण त्यागे वहां गांव वालों ने एक चबूतरा बना दिया और अब तो वह रेबारी एक लोकदेवता की तरह घर - घर में पूजा जाता है. कौन गांव कौन जात किसी को कुछ नही पता. बुजुर्गो से पूछो तो बस इतना बताते है कि मारवाड़ का रेबारी था. ऊंट चराने आया था. बीमारी से मर गया लेकिन बाद में परचे देने लगा और अब तो रेबारी बाबा की बात ही निराली है. भैरू जी और रेबारी दोनो का भोग चूका तो घर में कलेश होना तय है. 

ये केवल मेरे गांव की ही कहानी नही है. ढूंढ़ाड के गांव - गांव में कोई ना कोई रेबारी परचा देता मिल जाएगा. 

पर अब ना तो रेबारी और ना वो ढूंढाड़ 

रामजी की माया कितने दिन टिकनी है ये तो रामजी ही जाने पर बीते कुछ साल से रेबारी और रामजी दोनो ही ढूंढाड से रूठ गए है. 

मुझे तो लगता है कि ढूंढाड़ को मारवाड़ की काली नजर लगी है. ढूंढाड़ के हरियल खेत और सरवर पानी देखकर मारवाड़ कौनसा कुंठित हुए बिना रहा होगा. या फिर ढूंढाड़ को माया इतने दिन ही बदी थी. माया के मद में ढूंढाड़ ने भी मारवाड़ को हमेशा कमतर ही आंका है. 

घर की कोई सयानी छोरी बात का कहा नही मानती थी तो मेरी दादीसा गाली देकर कहती थी कि " रांड को ब्याव मारवाड़ में कर दीज्यो, खाबा ने बाजारों और पीबा ने खारो पाणी मिलेलो " 

मारवाड़ को लेकर ढूंढाड़ में बड़े ही तिरस्कार भरे लोकमत प्रचलित रहे है. ढूंढाड़ी मारवाड़ के लिए कहते आए है कि काया के काले, माया के अभागे और गांठ के कंजूस लोग है. मेरे परदादा जीरे के व्यापारी थे तो मारवाड़ और मरवाडियों में उठना बैठना था. छप्पनिया अकाल के बाद मारवाड़ की ऐसी छवि बनी कि हमारे कोई मारवाड़ी पावणा घर आ गया तो उसको चावल,बुरा और घी खिलाकर मानो उपकार करते थे.  गलती से किसी लड़की का रिश्ता मारवाड़ में हो जाता तो आस पड़ोस की महिलाएं यह डर पहले ही भर देती थी कि " मोटा रिवाज को देस है, सोना का भूखा मिनख है और परदेस की मजूरी है " 

हो भी क्यों ना संवत में तीन फसल काटने वाले ढूंढाड़ी कहते हैं, कि जिसका खलिहान खाली और सयानी छोरी कुंवारी हो वो आदमी तो वैसे भी बिरादरी में मुंह दिखाने के लायक नही है फिर मारवाड़ में तो बाजरी भी भगवान भरोसे होती है. 

बहरहाल, जब दिन फिरते है तो बुरे दिनों कि याद कौन करे. जब रामजी ने दी मौज तो रेबारी ढूंढ़ाड को भला क्योंकर याद करे. उन दिनों को अब कौन याद करे जब गर्मी आते ही मारवाड़ के सेठ - साहूकारों के टांके तक पींदे को धंसते थे फिर भला ऊंट पालने वाले रेबारियों की सुध कौन ले. जिनकी रामजी सुध नही लेता वे ढूंढाड की धरती को चले आते थे. इधर ढूंढाडी अपने खेत खाली करते थे और उधर से रेबारी उंटो को लेकर प्रस्थान करते थे. 

चरने को चारा, पीने को पानी, सुस्ताने छाया की ढूंढाड़ ने रेबारियों को कभी कमी नही आने दी.

मुझे ठीक से याद है गर्मियों में हमारी खेड़ को सब बच्चे मिलकर सुबह उठते ही पूरी भरते थे. पहले उसमे खुद नहाते और फिर रेबारियो के ऊंटो को पानी पीने छोड़ देते. जिस दिन किसी रेबारी का डेरा हमारी खेड़ खाली नही करता तो आसपास रेबारी का डेरा देखकर उसे कहते कि हमारी खेड़ पूरी भरी है. ऊंटों को पानी पिला दो. ताकि कल सुबह उसे फिर से भर दे और हमारे नहाने का जुगाड हो जाए. 

असल में तो ये रेबारी सदियों के सांस्कृतिक दूत थे जो ऊंट चराने के बहाने मारवाड़ की संस्कृति को ढूंढाड़ लेकर आते तो ढूंढाड़ को लादकर मारवाड़ पहुंचाते. मारवाड़ में ऊंट पाबूजी लाए तो ढूंढाड़ में रेबारी. ढूंढाड़ के ऊंट पालक बड़ी बेसब्री से इनका इंतजार करते कि रेबारी आए तो दो चार ऊंट खरीद लें. या फिर ऊंट पालने की तरकीब भी ये रेबारी ही सिखाकर जाते थे. ऊंट को किस बीमारी में कौनसी औषधी काम करती है ये रेबारी से ज्यादा कौन जानता है.

यहां आकर ये रेबारी खूब गपशप करते. नमक मिर्ची लगाकर मारवाड़ के किस्से सुनाते. हमारे मोहल्ले में बैठकर मारवाड़ के ठाकुरों की बातें बताते तो मन राजी होता था. जिस खेत में इनका डेरा होता वहां रात को गांव के सब चिलमबाज मिलते थे. इस लालच में कि रेबारियों की तंबाकू औषधी जैसा काम करती है. 

गूजरो से इन रेबारियों की जोरदार पटती थी. क्योंकि दूध का काम करने वाली गूजर जाति को ये अपना दूध बेचते थे. 

 पूरी गर्मी कलूटी काया पर मटमेले लिबास और माथे पर सतरंगी पगड़ी धरे ये रेबारी इधर - उधर दिखाई पड़ते थे. हमने तो कभी इनसे जात और गांव तक नही पूछा. कोई किसी भी जात और गांव का हो. हमारे लिए वह गांव का मारवाड़ी और जात का रेबारी ही था. 

खैर, अब ढूंढाड़ के दिन लद गए और मारवाड़ में सब बात की मौज है. इन बिन बुलाए पावणों के लिए अब ढूंढाड़ में ना तो हरियल खेत है ना सरवर पानी. अब लाचार ढूंढाड़ खुद सरकार से ERCP की भीख मांग रहा है. 

अब ये रेबारी ढूंढाड़ ऊंट लेकर ढूंढाड़ नही आते और खूब याद करने पर मुझे याद नही आ रहा कि मैने अंतिम बार अपने गांव में ऊंट कब देखा था. 

 

लेखक :- लोकेन्द्र सिंह किलाणौत


 


Thursday, 27 May 2021

मारवाड़ी छपनियाँ अकाल और महाराजा गंगा सिंह जी

 


अरे!यह राजा सनकी और आत्ममुग्ध है।भला ऐसी भी क्या?जिद जिसका कोई आधार ही नही है।जिस रेगिस्तान को प्यासा रहने का श्राप लगा हो उसे यह मीठे पानी से नहलायेगा....


यह भला कैसे सम्भव है.


तभी लोगो ने एक दुर्लभ दृश्य देखा और अपने प्रजावत्सल राजा की जय जयकार करने लगे.


जिस फोटोग्राफर ने वह दुर्लभ तश्वीर कैद की वह आज भी बीकानेर संग्रहालय में रखी हुई है और मेरी दृष्टि में बीसवीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण तश्वीर में से एक है।उस तश्वीर में तत्कालीन गवर्नर जनरल लार्ड इरविन उद्घाटन कर रहे है।महामना पंडित मदनमोहन मालवीय पुरोहित बनकर मंत्रोच्चारण कर रहे है और उस राजा के हाथ मे हल है जिसने अपनी प्रजा को पानी के संकट से मुक्ति दिलाने के लिए असम्भव को भी सम्भव कर दिखाया.


तभी लोगो ने कहा कि जिस रियासत का राजा अपनी प्रजा के लिए खुद मजदूर बन जाये उसका मनोरथ पूर्ण होने से स्वम् ब्रह्मा भी नही रोक सकते.


उस राजा का पुरा नाम था हिज हाइनेस महाराजाधिराज राज राजेश्वर नरेन्द्र शिरोमणि केसर-ए-हिंद महाराजा श्री गंगा सिंह बहादुर रियासत ऑफ बीकानेर.


राजा तो छोटी रियासत के थे लेकिन रुतबा बड़ा था इतना बड़ा की दुनिया के सुपर लीडर के साथ डिनर टेबल पर बैठते थे।राजनीतिज्ञ इतने बड़े थे कि पेरिस शांति सम्मेलन में भारत का प्रतिनिधित्व किया बहादुर इतने की प्रथम विश्व युध्द में ओटोमन सम्राज्य को टक्कर दे दी,रहीश भी उस हद के की जब लंदन जाते तो वहां का अभिजात्य वर्ग पलक पावड़े बिछाकर स्वागत करता।बात में वजन इतना होता कि सम्राट जॉर्ज पंचम भी उनकी बात को नही टालते दिलेर इतने की महामना पंडित मदनमोहन मालवीय तारीफ करते नही थकते.


इतिहास में कुख्यात छप्पनिया अकाल ने मारवाड़ की कमर तोड़ कर रख दी तो राजा ने पूरा राजकोष प्रजा पर लुटा दिया लेकिन वह प्रयास राजा को काफी नही लगा और अब राजा ने रेगिस्तान में ही एक नहर लाने की जिद कर डाली।अंग्रेजो से नजदीकियां थी उसका फायदा उठाकर पंजाब से सतलुज का पानी लाया गया पानी को तरसती मारवाड़ की धरती ने पहली बार मीठा पानी चखा और राजा की कलयुग के भगीरथ के नाम से ख्याति हुई.


पंडित मदनमोहन मालवीय का गंगनहर के उद्घाटन कार्यक्रम में पुरोहित बनने की भूमिका भी एक दिलचस्प घटना से लिखी गई।उस समय पंडित जी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के लिए देशभर के राजाओं के पास जाकर चंदा इकठ्ठा कर रहे थे और इसी सिलसिले में पंडित जी का बीकानेर पधारना हुआ।राजा सुबह कर्ण की बेला में दिल खोलकर दान दिया करते थे तभी उस दिन कतार में पंडित जी को देखा तो राजा चकित रह गए।पंडित जी से पधारने का प्रयोजन पूंछा तो पण्डित जी ने कहा कि विश्वविद्यालय के निर्माण के लिए बहुत अधिक धन कम पड़ रहा है।राजा और पंडित जी की पहले से ही गहरी मित्रता थी तो राजा ने तुरंत कह दिया कि आगे से विश्विद्यालय निर्माण के लिए जो भी धन खर्च होगा वह मैं दूंगा आप बेफिक्र होकर काशी पधारिये और निर्माण पूरा करवाइये।महामना राजा के प्रति कृतज्ञ थे और गहरे मित्र भी सो विश्वविद्यालय का पहला कुलपति राजा को ही नियुक्त कर दिया।जब राजा ने गंगनहर के निर्माण की नींव रखी तो वैदिक पूजन के लिए महामना से बेहत्तर पुरोहित भला कौन हो सकता था.


प्रथम विश्वयुद्ध के बाद लीग ऑफ नेशन का गठन हुआ।दुनिया भर के देशो की लिस्ट बनाई जा रही थी।तत्कालीन गवर्नर जनरल मांटेग्यू चेम्सफोर्ड जब लीग ऑफ नेशन में भारत का नाम शामिल करवाने को दुनिया के ताकतवर देशों के नेताओ से मिले तो उन्होंने यह कहकर भारत का नाम शामिल करने से मना कर दिया कि भारत एक गुलाम देश है और ब्रिटिश इंडिया जैसे किसी स्वायत देश का धरती पर अस्तित्व ही नही है।हताश और निराश चेम्सफोर्ड जब महाराजा गंगा सिंह से मिले तो महाराजा ने कहा कि अगर आप कहो तो इसके लिए एक कोशिश मैं कर लेता हूँ.


बाद में मांटेग्यू ने अपनी डायरी में लिखा कि मुझे नही पता महाराजा ने दुनिया के नेताओ से उस वक्त क्या कहा लेकिन कुछ ही देर बाद ब्रिटिश इंडिया का नाम भी लीग ऑफ नेशन में शामिल हो गया.


साभार : इस लेख के लिये तथ्यात्मक जानकारी श्री राजवीर सिंह चलकोइ (इतिहास विशेषज्ञ स्प्रिंगबोर्ड अकेडमी जयपुर) के एक वीडियो से ली गई है.


✍ लोकेन्द्र सिंह

Saturday, 8 May 2021

महाराणा प्रताप- पर्वतीय जीवन विशेष


भारत के हिन्दुआ सुरज, प्रातः वंदनीय महाराणा प्रताप सिंह की 481 वी जयंती पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएँ 🙏🏻


अभी कुछ दिन पहले एक राजनेतिक पार्टी विशेष के नेता द्वारा महाराणा प्रताप पर आपतिजनक बयान दिया गया चलिए आज  महाराणा प्रताप जंयती के अवसर पर उसी विषय पर थोडी जानकारी साझा करते हॆ के महाराणा प्रताप जंगलो मे भटकने की सच्चाई क्या हॆ 👇🏻


हल्दीघाटी से समबन्धित महाराणा प्रताप की गाथाएँ तो बडी महत्वपूर्ण हॆ लेकिन उनसे कही अधिक गॊरवपुर्ण वे गाथाए हॆ जो उनके पर्वतीय जीवन पर प्रकाश डालती हॆ,प्रताप के देशभिमान,स्वार्थत्याग,दुरदर्शिता,ऒर रणकॊशल के अध्ययन के लिए हमे उन घटनाओ को समझना चाहिए जिनका समबन्ध उनकी पहाडी स्थिती से हॆ,

इस स्थिति से सम्बन्धित घटनाए जॆसे महारानियो का चट्टानो पर सोना ,उनके पुत्र अथवा पुत्री की रोटी को बिलाव द्वारा छिना जाना इत्यादी बातो को बढा चढाकर लिखा गया हॆ ,हम जानते हॆ की  प्रताप हल्दीघाटी के युद्ध ऒर उनके देहावसान के बीच का समय अधिकांश पहाडो पर गुजरा ,यदी हम प्रताप को समझना चाहते हॆ तो हमे उन पहाडो पर जाना होगा जहां वर्षो रहकर प्रताप ने मुगलो का मुकाबला किया ऒर अपने देश की सुव्यवस्था की,ये पहाड आजी भी प्रताप के सच्चे स्वरुप को हमारे सामने उपस्थित करते हॆ ।

हल्दीघाटी की पराजय को महाराणा प्रताप ने कभी पराजय नही माना बल्कि इस पराजय के बाद उन्होने पर्वतीय जीवन ऒर युद्ध नीती का नया पृष्ठ आरम्भ किया। लडाई के मॆदान से वे सीधे उन पहाडो मे गये जहा पानी ,अन्न,ओर ऒषधि उपबल्ध थी। इन पहाडो मे कोल्यारी नाम का गांव था वहा पहुंचकर उन्होने घायल सॆनिको का उपचार करवाया । इन्ही से उन्हे अपने देश की सुरक्षा की आशा थी । यह स्थान निर्जन वन मे था जहां मुगल सेना का पहुंचना कठिन था । यहां प्रताप ने पहले ही रसद एंव अन्य सुविधाओ को जुटाकर रखा था ।कुछ समय यहा रहकर उन्होने घायल सिपाहियो की देखभाल की ऒर उन्हे स्वस्थ बनाया।


इसके पश्चात भीतरी गिरवा के पहाडी नाको पर इन सिपाहियो  को लगाया जिन्होने गोगुन्दा मे टिकी हुई शाही सेना की रसद को बन्द कर दिया । विजयी मुगल एक तरह से यहां कॆदियो की भांति जीवन बिताने लगे ,अपने घोडो ऒर ऊंटो को मारकर  खाने लागे इसके अतिरिक्त वहां पॆदा होने वाला खट्टा आम ही उन मुगलो के जीवन का आधार बना ,विवश होकर मुगल सॆनिक छिप छिप कर भागने लगे ऒर इस प्रकार से मुगलो की विजय पराजय मे बदल गयी ,राजा मान सिंह आमेर एंव बदायुनी जब अजमेर पहुचे तो अकबर ने उनकी अपेक्षा की ऒर यह इस बात का प्रमाण हॆ की प्रताप की पर्वतीय नीती ने मुगलो की नीती को विफल बना गया था।


मुगलो को गोगुन्दा से निकालने से ही महाराणा प्रताप संतुष्ट नही थे ,उन्होने कुम्भलगढ से लगाकर सहाडा  तक तथा गोडवाल से लेकर आंसीद ऒर भॆसरोडगढ के पर्वतीय नाको पर भीलो की विश्वस्त पालो को बसा दिया जो दिन रात मेवाड की चोकसी करते थे ,इन भील जत्थो के साथ अन्य सॆनिक भी थे जो मुगलो को मेवाड मे घुसने से रोकते थे ,

इस सम्पुर्ण व्यवस्था को सफल बनाने के लिए महाराणा को राजप्रासाद के जीवन से तिलांजली देनी पडी ,वे पहाडी कन्दराओ ऒर जंगलो मे अपने परिवार के साथ रहना ही अपने जीवन का अंग बना लिया ,

कभी वे एक पहाडी पर थे तो कभी दुसरी पर ,यह मुगलो से छिपने की विधी न थी वरन एक नयी युद्ध पद्धति थी जिसने भविष्य मे होने वाले मुगल हमलो को विफल बना दिया 

इस पद्धति मे जमकर लडाई करने का कोई महत्व नही दिया जाता। जिसका परिणाम यह हुआ की मुगल जो मॆदानी लडाई मे अभ्यस्त थे वे इस प्रणाली को समझ ना सके, यही कारण था के कुतुबुद्दीनखां , मिर्जाखां, हाशिमखां शाहबाजखां आदि मुगल जो उतरोतर मेवाड की ऒर भेजे गये कभी सफल नही हो सके, यहां तक की अकबर खुद गोगुन्दा आया ऒर राणा प्रताप की तलाश मे लगा रहा परन्तु अपने प्रयत्नो को विफल होकर गुजरात की ऒर निकल गया।


महाराणा प्रताप की सफलता केवल नाकेबन्दी के कारण न थी ,उन्होने अपने पर्वतीय जीवन काल मे स्थानीय  जन समुदाय से अच्छा सम्बन्ध स्थापित कर लिया था ,महाराणा प्रताप के कठिन व्रत एव कष्टपुर्ण जीवन बिताने से लोगो को बडी प्रेरणा मिली ,वे महाराणा के आत्मीय बन गये ऒर हर प्रकार से उनको सहयोग देने लगे । एक तामपत्र के आधार पर यह प्रमाणित होता हॆ के इस पर्वतीय जीवन काल मे महाराणा सकुटुम्ब क ई दिन तक एक लुहार के घर मे रहे थे, उसके सॊजन्य ऒर आतिथ्य के सम्मान मे उन्होने उसे खेती के लिए भुमी भी दी थी ,जो उसके वंशजो के अधिकार मे अब तक थी 


इस पर्वतीय जीवन के काल मे महाराणा ने वे स्थान जो उनके आदेश से खाली कर दिये थे जहां शत्रुओ के द्वारा बडी हानी पंहुची थी या जिन्हे अग्नि का ग्रास बना दिया गया था उन्हे फिर से आबाद किया गया । उदाहरणार्थ पीपली,ढोलान,टीकड,आदि गांव जो उजड गये थे उन्हे फिर से बसाया गया ,लोगो को नयी जमीने दि गयी ,जमीन के नये पट्टे बना दिये गये ,ऒर जो पुराने पट्टे जल गये थे या लुप्त हो गये थे उनको पुन: मान्यता दी गयी 

इस नीती व प्रयत्नो को सफल बनाने के लिए प्रताप पहाडी इलाको मे ही रहते थे ,उदयपुर को राजधानी बनाकर या मोती नगरी के राजप्रासादो मे प्रताप नही रहे ,उन्होने जनता के आराम के लिए अपने आराम की परवाह नही की ,इस व्यवस्था से मेवाड का जनजीवन ,व्यापार,वाणिज्य, आदि साधारण स्थिति पर पहुंच गये ,मुगलो के हमलो की प्रगति भी धीरे धीरे शिथिल होती गयी ।


इस प्रकार जब मेवाड की हालत सुधरती चली गयी तो प्रताप ने सहाडा के जिले मे एक पर्वतीय भाग जिसे छप्पन इलाका कहते थे वहां लुणा चावण्डिया को परास्त कर अपने अधिकार मे लिया ,यह भाग चारो ऒर उंची पर्वतमाला  से घिरा हुआ था  जिसमे घने जंगल तथा पर्वत घाटियो ऒर नाको का बाहुल्य था 

सन 1985ई. मे महाराणा ने इस भाग मे स्थित चावण्ड नामक एक पहाडी कस्बे को अपनी राजधानी बनाया ,उनके जीवन काल तक ही नही वरन उनके सुपुत्र अमर सिंह के राज्यकाल मे 1615ई. तक चावण्ड मेवाड की राजधानी बना रहा ,यहां प्रताप ने अपने महलो का निर्माण करवाया तथा उसके आसपास सामन्तो की हवेलिया बनवाई ,महलो के खण्डर आज भी बताते हॆ कि उनमे विलासिता या वॆभव का कोई दिखावा नही रखा गया था उनकी बनावट मे सरल जीवन तथा सुरक्षा के साधनो को प्रधानता दी गयी थी,जगह जगह मोर्चो की सुविधाए ,की गयी ,

राजप्रासाद तथा हवेलियो के खण्डरो को देखने से प्रतीत होता हॆ की शासक तथा अधिकारी वर्ग के मकानो मे कोई विशेष अन्तर नही था । यदी अन्तर था तो केवल उनके आकार मात्र का ।


महाराणा प्रताप का अन्तिम जीवन भी इसी पर्वतीय भाग मे समाप्त हुआ ,चावण्ड से डेड मील के अन्तराल पर बण्डोली गांव के पास मे महाराणा का दाह संस्कार हुआ जहां एक स्मारक बनवाया गया ,आज यह स्मारक एक बांध के गर्भ मे हॆ बडे प्रयासो के बाद यह स्मारक पानी से उपर उठाया गया जो उस निर्भिक स्वतंत्रता के पुजारी की हमे याद दिलाता हॆ जिसने पर्वतीय जीवन बिताकर तथा कठोरता का हंसकर सामना कर अपने देश के मान ऒर मर्यादा की रक्षा की ।🙏

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साभार - विजय सिंह शेखावत (सिंगोद)


Saturday, 23 May 2020

बेटी भी श्रवण सी होती है..।।


एक बेटी श्रवण बनी है बोझ जिंदगी का ढोती है,
क्या विकासशील देश में मजदूरों की हालत यही होती है..।।

रोता मन रोती मेहनत धूप भी सूरज की रोती है,
शिखर दुपहरी में जब एक बेटी श्रवण बन चलती है..।।

धूप में जलता बचपन लेकिन राजनीति कुलर में सोती है,
चित्र देख उमड़ते ख्याल आखिर जिंदगी कितनी कठिन होती है..।।

मिल जाता है सरकार का साथ जिनके पास इसकी कीमत होती है,
ये भारत है मेरी जान यहाँ मजदूरों की किस्मत यूँ ही रोती है..।।

😊😊😊😊😊😊😊😊😊😊

✍🏻 कुँवर चेतन सिंह चौहान "कलम"

Wednesday, 13 May 2020

निमूचाणा हत्याकांड - इतिहास के पन्नो से


अलवर का नीमूचाना कांड जिसमे 156 राजपूत किसानो को मशीनगन से भून दिया गया और 600 से ऊपर घायल हुए।

जलियांवाला कांड जिसमें लगभग ढाई सौ लोगो की मौत हुई थी उसके बाद भारत के इतिहास का सबसे बड़ा नरसंहार हुआ था नीमूचाना में। महात्मा गांधी ने इसे जलियांवाला हत्याकांड से भी ज्यादा भयानक बताया था। भारत के इतिहास में किसी भी किसान आंदोलन में इतने लोग नही मरे जितने नीमूचाना में एक दिन में मारे गए। इसके बावजूद अगर आप इंटरनेट पर सर्च करेंगे तो इस कांड के बारे में कोई खास जानकारी आपको नही मिल पाएगी। यहां तक कि भारत के किसान आंदोलनों या स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास भी आप पढ़ेंगे तो उसमे मुश्किल ही नीमूचाना कांड का जिक्र आपको मिलेगा।

यहां तक कि राजस्थान के किसान आंदोलनों या तथाकथित रियासत विरोधी/स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में भी इस कांड को पर्याप्त महत्व नही दिया जाता। राजस्थान में इतने कृत्रिम किसान आंदोलनो को 47 के बाद से पब्लिक डिस्कोर्स में  प्रसिद्धि दिलाई हुई है जिनमे जान माल की मामूली हानि हुई थी और उनके स्मारक बने हुए हैं, वर्षगांठ मनाई जाती हैं, इन आंदोलनों के नेता प्रसिद्धि पाकर मंत्री मुख्यमंत्री तक बने लेकिन इन सभी किसान आंदोलनों को मिलाकर भी उतनी जनहानि नहीं हुई जितनी अकेले नीमूचाना हत्याकांड में हुई लेकिन शायद ही इस कांड के शहीदों को याद किया जाता हो।नीमूचाना कांड को महत्व ना दिए जाने के पीछे खुद राजपूत समाज की उदासीनता भी कारण हैं क्योंकि स्थानीय राजपूत समाज मे इतिहास बोध ना के बराबर है।

अलवर रियासत क्योंकि अंग्रेजो के आगमन के कुछ समय पूर्व ही अस्तित्व में आई थी इसलिए वहां राजपूत जागीरदारों की संख्या अभी कम ही थी और जागीर भी बेहद छोटी थीं। 80% भूमि खालसा में थी। इस खालसा में बिसवेदार भी थे। बिसवेदार वो किसान होते थे जो खालसा में आते थे लेकिन उनको अपनी जमीन पर स्थायी मालिकाना हक मिला होता था। उन्हें कर ना चुकाने पर ही बेदखल किया जा सकता था। बिसवेदारो में ज्यादातर राजपूत थे जिन्हें सैनिक सेवा के बदले अलवर दरबार ने बिसवेदारी दीं थी। अंग्रेजो के अधीन होने के बाद राजपूत जागीरदारों और बिसेदारो पर दरबार की निर्भरता खत्म होने से दरबार और आम राजपूतो के संबंध और शिथिल हो गए।

1923-24 के नए भूमि बंदोबस्त में अलवर राज्य ने राजपूत किसानों के बिसवेदारी अधिकार जब्त कर लिये और कर की दरें बढ़ाकर 50% तक कर दी। यह अलवर दरबार द्वारा राजपूतो के साथ धोखा था जबकि रियासत को अब भी राजपूतो को अनिवार्य सैन्य सेवा में बुलाने का अधिकार था। राजपूतो को अनिवार्य सैन्य सेवा के कारण रियायतें दी जाती थीं। उन्हें अपना सामाजिक स्तर भी बनाए रखना होता था। ब्राह्मणो को भी दी जाती थीं हालांकि उन्हें सिर्फ ब्राह्मण होने के कारण रियायत मिलती थी। राज्य को उनसे कोई सेवा नही मिलती थी।

राज्य की इस व्यवस्था के विरुद्ध थानागाजी और बानसूर तहसील के राजपूत बिसवेदारो ने इकट्ठे होकर नई दरों पर कर नही देने और इसके विरुद्ध आंदोलन करने का निर्णय लिया। दबाव बनाने के लिए अक्टूबर 1924 में राजपूतो ने विभिन्न गांवों में बैठके की लेकिन इसका राज्य पर कोई असर नही हुआ।

इसके बाद आंदोलन के नेताओ ने राज्य के बाहर के राजपूतो का समर्थन जुटाने का निर्णय लिया। देशभर के राजपूतो से अपील की गईं। जनवरी 1925 में दिल्ली में अखिल भारतीय क्षत्रिय महासभा के अधिवेशन में अलवर से 200 राजपूत शामिल हुए। इन्होंने वहां अपनी व्यथा सुनाई और आंदोलन को समर्थन की अपील की। इन्हें अधिवेशन में सहानुभूति मिली और आंदोलन को जारी रखने के लिए प्रोत्साहन मिला।

इसके बाद यह आंदोलन तीव्र हो गया। गवर्नर जनरल के एजेंट को फरियाद की गई। लेकिन राज्य को कोई फर्क नही पड़ा। कर ना देने पर राज ने फसल जब्त कर लीं जिसे राजपूतो ने ताकत के बल छुड़ा लिया। अब राज सरकार द्वारा प्रतिकार की संभावनाओं को देखते हुए राजपूतो ने तलवार, भाले, बंदूक वगैरह जुटाने शुरू कर दिए। जो राजपूत अलवर राज के वफ़ादार थे और उसकी सबसे बड़ी ताकत थे वो ही अब अपने को उपेक्षित महसूस कर रहे थे। राजपूतो ने इस अन्याय का मुकाबला करने का फैसला किया।

आंदोलन का मुख्य केन्द्र नीमूचाना गांव था जिसके ठाकुर इस आंदोलन के मुख्य संगठन कर्ता थे। मई 1925 की शुरुआत में राजपूत बड़ी संख्या में इस गांव में जुटने शुरू हो गए। सरकार ने थानागाजी, बानसूर, मालाखेड़ा, राजगढ़, बहरोड़ थाना क्षेत्रो में हथियार लेकर घूमने पर प्रतिबंध लगा दिया। सरकार ने 7 मई को नीमूचाना गांव में वार्ता के लिए एक कमिशन भेजा जिसका असली उद्देश्य खुफिया जानकारी इकट्ठा करना था। इस कमिशन की वार्ता से कुछ हासिल नही हुआ और 6 दिन बाद 13 मई को राज्य की सेना ने गांव को चारों तरफ से घेर लिया और आंदोलन खत्म करने को कहा। 14 मई की सुबह सेना ने सारे रास्ते बंद कर बिना चेतावनी के गांव पर मशीन गन से फायरिंग शुरू कर दी और गांव को जलाकर राख कर दिया जिसमे 156 राजपूत किसान मारे गए और 600 से ज्यादा घायल हुए।

इस हत्याकांड की देशभर में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। देशभर के समाचार पत्रों में लेख लिखे गए। महात्मा गांधी ने इसे जलियावांला से भी ज्यादा भयानक बताया। लेकिन क्योंकि अंग्रेजी राज के परिणामस्वरूप बने नए शहरी उच्च मध्यम वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली कांग्रेस के द्वारा राजपूतो को अस्पृश्य समझा जाता था इसलिए इस हत्याकांड की आलोचना की सिर्फ औपचारिकता निभाई गई। हालांकि सरकार ने हत्याकांड के बाद अपने फैसले वापिस लिए और मृतकों के परिजनों को मुआवजे दिए गए।

यह कहा जाता है कि अलवर महाराज पर अंग्रेज सरकार का दबाव था। अंग्रेज सरकार उन्हें हटाने के बहाने ढूंढती रहती थी। और असहयोग आंदोलन के बाद अंग्रेजी सरकार ने आंदोलनों से सख्ती से निपटने का फैसला किया हुआ था। लेकिन इस सबके बावजूद इतने बड़े हत्याकांड के लिए किसी भी बहाने से किसी को दोषमुक्त नही किया जा सकता।
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लेखक- पुस्पेंद्र राणा
साभार - वीरेंद्र प्रताप सिंह सोलंकी