Monday, 17 April 2023

ठाकुर का कुँआ

 


ठाकुर गोरधन सिंह रहते थे सिन्ध के खिपरो में।

नौ बेटे चार बेटियाँ।

जब लगा कि हवा का रुख पलट गया है,

अकेला पड़ता जा रहा है,

आ पहुंचे सिंध से हिन्द!

सैकड़ों गाय, ऊंट भेड़ बकरी!

तलाई सूखी। कब तक दूसरों के भरोसे रहना?


विचार किया कुँआ खोदने का।

जाळ वाली डेहरी में,

चौथ का धूंप किया।

आखा जोया, सुगन बिचारा।

और जेठ की ग्यारस को खुदाई शुरू की।

दो बेटे खोदते, दो मिट्टी खींचते।

अभी आठ पुरुस ही खोदा था कि कुँआ ढह गया!!

हीरा वीरा दब गए।

खेजड़ जैसे पाले पोसे, दो कुंवर जिंदा दफन हो गए।

लाशें निकाली। दाह संस्कार किया।

बारह दिन बिताकर फिर से खुदाई शुरू की।

इस बार चिमिया मेघवाल बुलाया।


एक ऊंट से मिट्टी, दूजे से पखाल, तीजे से बहावलपुर की पक्की ईंटों की ढुलाई शुरू की।

चिमिया चिनाई करता।

जागन चूना घोलता।

तेजा और भूरा कींण भरते।

सतिया और बूलाह खींचते।

इक्कीस पुरुस पर गींया आया।

बयालीस पुरुस पर खुदाई चल रही थी,

अचानक कींण टूटी।

भूरे की कमर ही टूट गई।

मांचे पर डालकर घर लाए।

इग्यारह महीने खुदाई चली।


साठ पुरुस पर पानी आया।

भगवती को भोग लगाया।

पितरों का तर्पण किया।

हीरा और बीरा की आत्मा का तर्पण किया।

चिमिया ने कोठा चुगा।

काठोडी से सिम्पट, खेली, कपूरिया और कोअड़ मंगवाए।


नख्तू सुथार ने ओड़ाक, खीली और भाण बनाया।

तेजा भील ने बरत और कोस दिया।

किसी को ऊँट तो किसी को बळदों की जोड़ी दी।

किसी के कान पीले किये तो किसी की कन्या परणाई।

किसी ने गोखरू घड़ाए तो किसी की सगाई कराई।

पर चिमिया राजी नहीं हुआ।

ठाकुर ने कहा "बोल चिम्मा! क्या चाहता है?"

फोगां वाली डेहरी, पूरे तीन सौ बीघा का खेत लिया।

ठकुराइन बोली "मेरा चिम्मा नाराज नहीं रहना चाहिए, खेत के साथ बैल भी दो!"

और शुद्धनम को कुँआ चालू हुआ।

पहले एक डेरा था, अब बस्ती बस गई।

देश देश के नासेटू आते। पखाल, पनघट, सब चालू रहता।


दिन को धणियों वाला धन पीता।

रात को निधणीके फंडे ढोर पीते।

जंगली जानवर और हिरणियों की प्यास बुझती।

आठ कोस तक के रोल खोल, थके, लंगे, पशु पक्षी, सबकी आशा का सहारा।

गौधूजी का कुँआ।।


मंगनियार हीरा वीरा के झोरावे गाते।

चारपाई पर पड़े हुए भूरे की आंखें गीली हो जातीं।

ठाकुर आंखों से अंधा भी "आये गए" की सार सम्भाल करता।

डेहरी में कोस की धमक गूँजती।

खीली के लिए गोसी की हुंकार होती।

घिरनी की चपड़ चूँ चार कोस तक सुनाई देती।

ऊँटों के बग घमकते, खिज का हुब्बाड़ उठता।

तपेलों में खीर महकती, चिलम के धुंए उठते, खेजड़ी के नीचे चहल-पहल।

दूर दूर के यात्री, अपनी अपनी कथाएं कहते।

दिन तोड़ते, हिसाब करते, पंचायतियां होती।

कतारें रुकती।

दिसावर जाते पंथी और ससुराल जाती बहुएं यहाँ से अपने हलकारे को अंतिम सन्देश के साथ वापस रवाना करतीं।


लोकगीतों में, मिथक में, भयानक यात्राओं में, हिस्ट्री में, मिस्ट्री में, संकेत में, सेना में, चारों तरफ चर्चा में रहा!


ठाकुर वाला कुँआ।

गोधूवाला कुँआ!!

Wednesday, 29 March 2023

रेबारी तुम कब आओगे

 


गर्मियां आ गई लेकिन ढूंढाड़ में रेबारी कब आएंगे ? 

रामजी और रेबारी ढूंढाड से ऐसे रूठ गए कि अब ढूंढाड़ की पूरी रंगत ही बदलती जाती है. बिना पावणो के कैसी तो रंगत और कैसा ढूंढाड.

मेरे गांव के बाहर जंगल में एक चबूतरा बना हुआ है. कोई मारवाड़ का रेबारी सौ बरस पहले ऊंट लेकर ढूंढाड आया था. बीमारी से वह रेबारी स्वर्ग सिधार गया. जिस जगह रेबारी ने प्राण त्यागे वहां गांव वालों ने एक चबूतरा बना दिया और अब तो वह रेबारी एक लोकदेवता की तरह घर - घर में पूजा जाता है. कौन गांव कौन जात किसी को कुछ नही पता. बुजुर्गो से पूछो तो बस इतना बताते है कि मारवाड़ का रेबारी था. ऊंट चराने आया था. बीमारी से मर गया लेकिन बाद में परचे देने लगा और अब तो रेबारी बाबा की बात ही निराली है. भैरू जी और रेबारी दोनो का भोग चूका तो घर में कलेश होना तय है. 

ये केवल मेरे गांव की ही कहानी नही है. ढूंढ़ाड के गांव - गांव में कोई ना कोई रेबारी परचा देता मिल जाएगा. 

पर अब ना तो रेबारी और ना वो ढूंढाड़ 

रामजी की माया कितने दिन टिकनी है ये तो रामजी ही जाने पर बीते कुछ साल से रेबारी और रामजी दोनो ही ढूंढाड से रूठ गए है. 

मुझे तो लगता है कि ढूंढाड़ को मारवाड़ की काली नजर लगी है. ढूंढाड़ के हरियल खेत और सरवर पानी देखकर मारवाड़ कौनसा कुंठित हुए बिना रहा होगा. या फिर ढूंढाड़ को माया इतने दिन ही बदी थी. माया के मद में ढूंढाड़ ने भी मारवाड़ को हमेशा कमतर ही आंका है. 

घर की कोई सयानी छोरी बात का कहा नही मानती थी तो मेरी दादीसा गाली देकर कहती थी कि " रांड को ब्याव मारवाड़ में कर दीज्यो, खाबा ने बाजारों और पीबा ने खारो पाणी मिलेलो " 

मारवाड़ को लेकर ढूंढाड़ में बड़े ही तिरस्कार भरे लोकमत प्रचलित रहे है. ढूंढाड़ी मारवाड़ के लिए कहते आए है कि काया के काले, माया के अभागे और गांठ के कंजूस लोग है. मेरे परदादा जीरे के व्यापारी थे तो मारवाड़ और मरवाडियों में उठना बैठना था. छप्पनिया अकाल के बाद मारवाड़ की ऐसी छवि बनी कि हमारे कोई मारवाड़ी पावणा घर आ गया तो उसको चावल,बुरा और घी खिलाकर मानो उपकार करते थे.  गलती से किसी लड़की का रिश्ता मारवाड़ में हो जाता तो आस पड़ोस की महिलाएं यह डर पहले ही भर देती थी कि " मोटा रिवाज को देस है, सोना का भूखा मिनख है और परदेस की मजूरी है " 

हो भी क्यों ना संवत में तीन फसल काटने वाले ढूंढाड़ी कहते हैं, कि जिसका खलिहान खाली और सयानी छोरी कुंवारी हो वो आदमी तो वैसे भी बिरादरी में मुंह दिखाने के लायक नही है फिर मारवाड़ में तो बाजरी भी भगवान भरोसे होती है. 

बहरहाल, जब दिन फिरते है तो बुरे दिनों कि याद कौन करे. जब रामजी ने दी मौज तो रेबारी ढूंढ़ाड को भला क्योंकर याद करे. उन दिनों को अब कौन याद करे जब गर्मी आते ही मारवाड़ के सेठ - साहूकारों के टांके तक पींदे को धंसते थे फिर भला ऊंट पालने वाले रेबारियों की सुध कौन ले. जिनकी रामजी सुध नही लेता वे ढूंढाड की धरती को चले आते थे. इधर ढूंढाडी अपने खेत खाली करते थे और उधर से रेबारी उंटो को लेकर प्रस्थान करते थे. 

चरने को चारा, पीने को पानी, सुस्ताने छाया की ढूंढाड़ ने रेबारियों को कभी कमी नही आने दी.

मुझे ठीक से याद है गर्मियों में हमारी खेड़ को सब बच्चे मिलकर सुबह उठते ही पूरी भरते थे. पहले उसमे खुद नहाते और फिर रेबारियो के ऊंटो को पानी पीने छोड़ देते. जिस दिन किसी रेबारी का डेरा हमारी खेड़ खाली नही करता तो आसपास रेबारी का डेरा देखकर उसे कहते कि हमारी खेड़ पूरी भरी है. ऊंटों को पानी पिला दो. ताकि कल सुबह उसे फिर से भर दे और हमारे नहाने का जुगाड हो जाए. 

असल में तो ये रेबारी सदियों के सांस्कृतिक दूत थे जो ऊंट चराने के बहाने मारवाड़ की संस्कृति को ढूंढाड़ लेकर आते तो ढूंढाड़ को लादकर मारवाड़ पहुंचाते. मारवाड़ में ऊंट पाबूजी लाए तो ढूंढाड़ में रेबारी. ढूंढाड़ के ऊंट पालक बड़ी बेसब्री से इनका इंतजार करते कि रेबारी आए तो दो चार ऊंट खरीद लें. या फिर ऊंट पालने की तरकीब भी ये रेबारी ही सिखाकर जाते थे. ऊंट को किस बीमारी में कौनसी औषधी काम करती है ये रेबारी से ज्यादा कौन जानता है.

यहां आकर ये रेबारी खूब गपशप करते. नमक मिर्ची लगाकर मारवाड़ के किस्से सुनाते. हमारे मोहल्ले में बैठकर मारवाड़ के ठाकुरों की बातें बताते तो मन राजी होता था. जिस खेत में इनका डेरा होता वहां रात को गांव के सब चिलमबाज मिलते थे. इस लालच में कि रेबारियों की तंबाकू औषधी जैसा काम करती है. 

गूजरो से इन रेबारियों की जोरदार पटती थी. क्योंकि दूध का काम करने वाली गूजर जाति को ये अपना दूध बेचते थे. 

 पूरी गर्मी कलूटी काया पर मटमेले लिबास और माथे पर सतरंगी पगड़ी धरे ये रेबारी इधर - उधर दिखाई पड़ते थे. हमने तो कभी इनसे जात और गांव तक नही पूछा. कोई किसी भी जात और गांव का हो. हमारे लिए वह गांव का मारवाड़ी और जात का रेबारी ही था. 

खैर, अब ढूंढाड़ के दिन लद गए और मारवाड़ में सब बात की मौज है. इन बिन बुलाए पावणों के लिए अब ढूंढाड़ में ना तो हरियल खेत है ना सरवर पानी. अब लाचार ढूंढाड़ खुद सरकार से ERCP की भीख मांग रहा है. 

अब ये रेबारी ढूंढाड़ ऊंट लेकर ढूंढाड़ नही आते और खूब याद करने पर मुझे याद नही आ रहा कि मैने अंतिम बार अपने गांव में ऊंट कब देखा था. 

 

लेखक :- लोकेन्द्र सिंह किलाणौत